Friday, November 30, 2012

|| सुख - दुःख का भोक्ता जीवात्मा ||

‎|| सुख - दुःख का भोक्ता जीवात्मा ||
जो परब्रह्म परमात्मा का शुद्ध अंश है , उसे आत्मा कहते हैं | माया और माया के कार्यों के साथ सम्बन्धित हो जाने पर इसी आत्मा की जीव - संज्ञा समझी जाती है | प्रकृति और इसके १७ तत्त्वों [ पांच प्राण , दस इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि ] के साथ रहने से ही आत्मा जीव कहलाता है | आत्मा तो आकाश की भांति निर्लेप और समभाव से सर्वदा सर्वत्र स्थित है | केवल शरीरों के साथ संबंध होने से उसका आना - जाना - सा प्रतीत होता है | शुद्ध आत्मा में वास्तव में गमनागमन की क्रिया न होने पर भी सुख - दुःख जीवात्मा को ही होते हैं और इसीलिए उनसे मुक्त होने को कहा जाता है | शरीर के साथ संबंध वाला जीवात्मा ही सुख - दुःख का भोक्ता माना गया है [ श्लोक १३ / २१ ] | प्रकृति [ भगवान की त्रिगुणमयी माया ] में स्थित हुआ ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए त्रिगुणात्मक सब पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी - बुरी योनियों में जन्म लेने में कारण है | यह बात ध्यान में रखने की है कि न तो सुख - दुःख , प्रकृति और उसके कार्यों से मुक्त होन...
े पर शुद्ध आत्मा को हो सकते हैं और न ही जड होने के कारण अंत:करण को | यह उसी अवस्था में होते हैं जब यह पुरुष - जीवात्मा प्रकृति में स्थित होता है |
सुख - दुःख अंत:करण के धर्म नहीं बल्कि विकार हैं और साधन से कम -ज्यादा हो सकते हैं तथा इनका नाश भी हो सकता है | मन बुद्धि , चित्त , अहंकार आदि जड होने के कारण कर्त्ता -भोक्ता नहीं हो सकते | ये माया के विकार हैं और अंत:करण इनके रहने का आधार स्थल है | अतैव माया के संबंध वाला पुरुष ही भोक्ता है | जब यह जीव स्थूल शरीर में आता है और जाग्रत - अवस्था में रहता है , उस समय इसका तीनों शरीर [ २४ तत्त्वों वाला ] और पाँचों कोषों से संबंध रहता है | जब प्रलय या स्वप्नावस्था को प्राप्त होता है , तब इसका प्रकृति सहित १७ तत्त्वों के सूक्ष्म शरीर से संबंध रहता है | जब यह ब्रह्माजी के शांत होने पर महाप्रलय में या सुषुप्ति - अवस्था में रहता है , तब इसका केवल प्रकृति के साथ संबंध रहता है | इसीको कारण - शरीर कहते हैं जो मूल प्रकृति का एक अंश है | सर्ग के अंत में गुण और कर्मों के संस्कारों का समुदाय कारणरूपा प्रकृति में लय हो जाता है और सर्ग के आदि में पुन: उसीसे प्रकट हो जाता है तथा उसी गुण - कर्म - समुदाय के अनुसार ही परमेश्वर सम्पूर्ण भूत - प्राणियों को संसार में रचते हैं | भगवान [ श्लोक ९ / ७ ] ने कहा है , ' हे अर्जुन ! कल्प के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात प्रकृति में लय होते हैं और कल्प के आदि में उनको मैं [ स्वयम ] फिर रचता हूँ |
प्रकृति के दो भेद हैं - एक विद्या और दूसरी अविद्या | विद्या के द्वारा भगवान संसार की रचना करते हैं और अविद्या के द्वारा जीव मोहित हो रहे हैं | जब जीव रज और तम को लांघकर केवल सत में स्थित हो जाता है , तब उसके अंत:करण में विद्या अर्थात ज्ञान की उत्पत्ति होती है | फिर उस ज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश होने पर वह ज्ञान भी स्वयम शांत हो जाता है | उस समय यह जीव मुक्त होकर परमात्मा के स्वरूप को अभिन्नरूप से प्राप्त हो जाता है | इसीको अभेद मुक्ति कहते हैं |
|| इति ||

"मेरा आपकी कृपा से, सब काम हो रहा है"

मेरा आपकी कृपा से, सब काम हो रहा है, (2)
करते हो तुम कन्हैया, मेरा नाम हो रहा है
पतवार के बिना हे, मेरी नाव चल रही है,


हैरान हे ज़माना, मंजिल भी मिल रही है (2)...
करता नहीं में कुछ भी, सब काम हो रहा है...
करते हो तुम कन्हैया.......


तुम साथ हो जो मेरे, किस चीज़ की कमी है,
किसी और चीज़ की अब, दरकार ही नहीं नहीं है...
तेरे साथ से गुलाम, गुलफाम हो रहा है...
करते हो तुम कन्हैया.......


मैं तो नहीं हूँ काबिल, तेरा प्यार कैसे पाऊ,
टूटी हुई वाणी से, गुणगान कैसे ग़ाऊ,
तेरी प्रेरणा से हे, ये नाम हो रहा है...
करते हो तुम कन्हैया.......


मुझे हर कदम कदम पर, तुने दिया सहारा,
मेरी ज़िन्दगी बदल दी, तुने करके एक इशारा,
एहसान पे तेरा ये, एहसान हो रहा है...
करते हो तुम कन्हैया.......


तूफ़ान आंधियों में, तुने हे मुजह्को थामा,
तुम कृष्ण बन के आये, मैं जब बना सुदामा,
तेरा करम ये मुझपर, सरे आम हो रहा है...
करते हो तुम कन्हैया.......


मेरा आपकी कृपा से, सब काम हो रहा है, (2)
करते हो तुम कन्हैया, मेरा नाम हो रहा है
मेरा आपकी कृपा से, सब काम हो रहा है, (2)
करते हो तुम कन्हैया, मेरा नाम हो रहा है
पतवार के बिना हे, मेरी नाव चल रही है,


...
हैरान हे ज़माना, मंजिल भी मिल रही है (2)...
करता नहीं में कुछ भी, सब काम हो रहा है...
करते हो तुम कन्हैया.......


तुम साथ हो जो मेरे, किस चीज़ की कमी है,
किसी और चीज़ की अब, दरकार ही नहीं नहीं है...
तेरे साथ से गुलाम, गुलफाम हो रहा है...
करते हो तुम कन्हैया.......


मैं तो नहीं हूँ काबिल, तेरा प्यार कैसे पाऊ,
टूटी हुई वाणी से, गुणगान कैसे ग़ाऊ,
तेरी प्रेरणा से हे, ये नाम हो रहा है...
करते हो तुम कन्हैया.......


मुझे हर कदम कदम पर, तुने दिया सहारा,
मेरी ज़िन्दगी बदल दी, तुने करके एक इशारा,
एहसान पे तेरा ये, एहसान हो रहा है...
करते हो तुम कन्हैया.......


तूफ़ान आंधियों में, तुने हे मुजह्को थामा,
तुम कृष्ण बन के आये, मैं जब बना सुदामा,
तेरा करम ये मुझपर, सरे आम हो रहा है...
करते हो तुम कन्हैया.......


मेरा आपकी कृपा से, सब काम हो रहा है, (2)
करते हो तुम कन्हैया, मेरा नाम हो रहा  है...

Meaning of Bhagwan

JAI Shri Krishna :)
JAI Shri Krishna :)

आत्म - उन्नति के साधन

‎|| आत्म - उन्नति के साधन ||
अपनी आत्मा का उद्धार करना मनुष्य का सर्वोपरि कर्त्तव्य है | इसके लिए प्रयत्न -पूर्वक निम्न साधन करने चाहिए : -
[१ ] सत्संग व स्वाध्याय - सत्पुरुषों का संग और सत - शास्त्रों [ गीता , रामायण , भागवत आदि ] का अध्ययन करके उनके उत्तम सत आचरणों और उपदेशों का जीवन में अनुशरण करना चाहिए | [ २ ] ईश्वर में विश्वास - यह बात श्रधा-पूर्वक मान लेनी चाहिए की ईश्वर है , सर्वत्र है , सर्वान्तर्यामी है , सर्व-शक्तिमान है , सर्व व्यापी है , सर्वज्ञ है , सनातन है , नित्य है , प्रेमी है , दयालु है , परम - आत्मीय है और परम गुरु है | ईश्वर में विश्वास जितना अधिक होगा , आत्मा उतना ही उन्नत होगा | [३ ] नाम जप करना - शरणागत होकर निष्काम और प्रेम भाव से नाम का जप करना [ श्लोक १० / ९ - १० ] चाहिए | भगवान के सभी नाम समान प्रभावशाली हैं | [ ४ ] रूप ध्यान करना - भगवान के नाम जप के साथ [ स्मरण - भक्ति ] उनके रूप का ध्यान करना आवश्यक है | साधक को जो रूप पसंद हो ,उसी का ध्यान करे | जैसे भगवान ने अर्जुन को , उसके चाहे अनुसार पहले विराट स्वरूप का , फि...
र चतुर्भुज स्वरूप का और फिर द्वि- भुज मनुष्य रूप में दर्शन दिए | इतना ही नहीं , साधक अपने मन में जैसा रूप कल्पना से बना ले वैसे ही रूप में भगवान दर्शन दे सकते हैं | उनके अनंत रूप हैं |
[ ५ ] आत्म - कल्याण हेतु प्रयत्नशील रहना - सतो-गुण अपनावें , श्रेय-मार्ग [ भक्ति , सत्संग , स्वाध्याय ] पर चलें , देवी संपदा का आश्रय लें , सद्गुरु के बताए मार्ग का अनुशरण करें | धीरे - धीरे साधन में उन्नति होने पर भगवान के क्षेत्र [ नाम ,रूप , गुण , लीला , धाम और संत ] में मन लगने लगेगा [ लगाना नहीं पडेगा ] और तब भगवत - कृपा से तत्त्व - ज्ञान [ अंत:करण शुद्ध होने पर ] व परमात्मा प्राप्ति अवश्य होगी | [ ६ ] सहज कर्म का पालन - [ श्लोक १८ / ४८ ] - अपने वर्ण- आश्रम धर्म के अनुसार जो सहज कर्म , नित्य कर्म आवश्यक रूप से करना कर्त्तव्य समझ लिया हो , उसे पूर्ण सच्चाई और ईमानदारी से समय पर पूरा
करना चाहिए | जीवन में कभी , किसी दूसरे का हक नहीं मारना चाहिए | लोभ , भय , स्वार्थ आदि से प्रयत्न-पूर्वक बचना चाहिए | अपनी विवेक - बुद्धि के सहारे जो आत्म - उन्नति की चेष्टा करता है , वह प्राय सफल ही होता है | तथा जो शरणागत होकर साधन करता [ १८ / ५६ ] है , उसकी सफलता में तो कोई संदेह ही नहीं रहता |
|| इति ||
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