|| सुख - दुःख का भोक्ता जीवात्मा ||
जो परब्रह्म परमात्मा का शुद्ध अंश है , उसे आत्मा कहते हैं | माया और माया के कार्यों के साथ सम्बन्धित हो जाने पर इसी आत्मा की जीव - संज्ञा समझी जाती है | प्रकृति और इसके १७ तत्त्वों [ पांच प्राण , दस इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि ] के साथ रहने से ही आत्मा जीव कहलाता है | आत्मा तो आकाश की भांति निर्लेप और समभाव से सर्वदा सर्वत्र स्थित है | केवल शरीरों के साथ संबंध होने से उसका आना - जाना - सा प्रतीत होता है | शुद्ध आत्मा में वास्तव में गमनागमन की क्रिया न होने पर भी सुख - दुःख जीवात्मा को ही होते हैं और इसीलिए उनसे मुक्त होने को कहा जाता है | शरीर के साथ संबंध वाला जीवात्मा ही सुख - दुःख का भोक्ता माना गया है [ श्लोक १३ / २१ ] | प्रकृति [ भगवान की त्रिगुणमयी माया ] में स्थित हुआ ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए त्रिगुणात्मक सब पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी - बुरी योनियों में जन्म लेने में कारण है | यह बात ध्यान में रखने की है कि न तो सुख - दुःख , प्रकृति और उसके कार्यों से मुक्त होन...
े पर शुद्ध आत्मा को हो सकते हैं और न ही जड होने के कारण अंत:करण को | यह उसी अवस्था में होते हैं जब यह पुरुष - जीवात्मा प्रकृति में स्थित होता है |
सुख - दुःख अंत:करण के धर्म नहीं बल्कि विकार हैं और साधन से कम -ज्यादा हो सकते हैं तथा इनका नाश भी हो सकता है | मन बुद्धि , चित्त , अहंकार आदि जड होने के कारण कर्त्ता -भोक्ता नहीं हो सकते | ये माया के विकार हैं और अंत:करण इनके रहने का आधार स्थल है | अतैव माया के संबंध वाला पुरुष ही भोक्ता है | जब यह जीव स्थूल शरीर में आता है और जाग्रत - अवस्था में रहता है , उस समय इसका तीनों शरीर [ २४ तत्त्वों वाला ] और पाँचों कोषों से संबंध रहता है | जब प्रलय या स्वप्नावस्था को प्राप्त होता है , तब इसका प्रकृति सहित १७ तत्त्वों के सूक्ष्म शरीर से संबंध रहता है | जब यह ब्रह्माजी के शांत होने पर महाप्रलय में या सुषुप्ति - अवस्था में रहता है , तब इसका केवल प्रकृति के साथ संबंध रहता है | इसीको कारण - शरीर कहते हैं जो मूल प्रकृति का एक अंश है | सर्ग के अंत में गुण और कर्मों के संस्कारों का समुदाय कारणरूपा प्रकृति में लय हो जाता है और सर्ग के आदि में पुन: उसीसे प्रकट हो जाता है तथा उसी गुण - कर्म - समुदाय के अनुसार ही परमेश्वर सम्पूर्ण भूत - प्राणियों को संसार में रचते हैं | भगवान [ श्लोक ९ / ७ ] ने कहा है , ' हे अर्जुन ! कल्प के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात प्रकृति में लय होते हैं और कल्प के आदि में उनको मैं [ स्वयम ] फिर रचता हूँ |
प्रकृति के दो भेद हैं - एक विद्या और दूसरी अविद्या | विद्या के द्वारा भगवान संसार की रचना करते हैं और अविद्या के द्वारा जीव मोहित हो रहे हैं | जब जीव रज और तम को लांघकर केवल सत में स्थित हो जाता है , तब उसके अंत:करण में विद्या अर्थात ज्ञान की उत्पत्ति होती है | फिर उस ज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश होने पर वह ज्ञान भी स्वयम शांत हो जाता है | उस समय यह जीव मुक्त होकर परमात्मा के स्वरूप को अभिन्नरूप से प्राप्त हो जाता है | इसीको अभेद मुक्ति कहते हैं |
|| इति ||
|| सुख - दुःख का भोक्ता जीवात्मा ||
जो परब्रह्म परमात्मा का शुद्ध अंश है , उसे आत्मा कहते हैं | माया और माया के कार्यों के साथ सम्बन्धित हो जाने पर इसी आत्मा की जीव - संज्ञा समझी जाती है | प्रकृति और इसके १७ तत्त्वों [ पांच प्राण , दस इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि ] के साथ रहने से ही आत्मा जीव कहलाता है | आत्मा तो आकाश की भांति निर्लेप और समभाव से सर्वदा सर्वत्र स्थित है | केवल शरीरों के साथ संबंध होने से उसका आना - जाना - सा प्रतीत होता है | शुद्ध आत्मा में वास्तव में गमनागमन की क्रिया न होने पर भी सुख - दुःख जीवात्मा को ही होते हैं और इसीलिए उनसे मुक्त होने को कहा जाता है | शरीर के साथ संबंध वाला जीवात्मा ही सुख - दुःख का भोक्ता माना गया है [ श्लोक १३ / २१ ] | प्रकृति [ भगवान की त्रिगुणमयी माया ] में स्थित हुआ ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए त्रिगुणात्मक सब पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी - बुरी योनियों में जन्म लेने में कारण है | यह बात ध्यान में रखने की है कि न तो सुख - दुःख , प्रकृति और उसके कार्यों से मुक्त होन...
जो परब्रह्म परमात्मा का शुद्ध अंश है , उसे आत्मा कहते हैं | माया और माया के कार्यों के साथ सम्बन्धित हो जाने पर इसी आत्मा की जीव - संज्ञा समझी जाती है | प्रकृति और इसके १७ तत्त्वों [ पांच प्राण , दस इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि ] के साथ रहने से ही आत्मा जीव कहलाता है | आत्मा तो आकाश की भांति निर्लेप और समभाव से सर्वदा सर्वत्र स्थित है | केवल शरीरों के साथ संबंध होने से उसका आना - जाना - सा प्रतीत होता है | शुद्ध आत्मा में वास्तव में गमनागमन की क्रिया न होने पर भी सुख - दुःख जीवात्मा को ही होते हैं और इसीलिए उनसे मुक्त होने को कहा जाता है | शरीर के साथ संबंध वाला जीवात्मा ही सुख - दुःख का भोक्ता माना गया है [ श्लोक १३ / २१ ] | प्रकृति [ भगवान की त्रिगुणमयी माया ] में स्थित हुआ ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए त्रिगुणात्मक सब पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी - बुरी योनियों में जन्म लेने में कारण है | यह बात ध्यान में रखने की है कि न तो सुख - दुःख , प्रकृति और उसके कार्यों से मुक्त होन...
े पर शुद्ध आत्मा को हो सकते हैं और न ही जड होने के कारण अंत:करण को | यह उसी अवस्था में होते हैं जब यह पुरुष - जीवात्मा प्रकृति में स्थित होता है |
सुख - दुःख अंत:करण के धर्म नहीं बल्कि विकार हैं और साधन से कम -ज्यादा हो सकते हैं तथा इनका नाश भी हो सकता है | मन बुद्धि , चित्त , अहंकार आदि जड होने के कारण कर्त्ता -भोक्ता नहीं हो सकते | ये माया के विकार हैं और अंत:करण इनके रहने का आधार स्थल है | अतैव माया के संबंध वाला पुरुष ही भोक्ता है | जब यह जीव स्थूल शरीर में आता है और जाग्रत - अवस्था में रहता है , उस समय इसका तीनों शरीर [ २४ तत्त्वों वाला ] और पाँचों कोषों से संबंध रहता है | जब प्रलय या स्वप्नावस्था को प्राप्त होता है , तब इसका प्रकृति सहित १७ तत्त्वों के सूक्ष्म शरीर से संबंध रहता है | जब यह ब्रह्माजी के शांत होने पर महाप्रलय में या सुषुप्ति - अवस्था में रहता है , तब इसका केवल प्रकृति के साथ संबंध रहता है | इसीको कारण - शरीर कहते हैं जो मूल प्रकृति का एक अंश है | सर्ग के अंत में गुण और कर्मों के संस्कारों का समुदाय कारणरूपा प्रकृति में लय हो जाता है और सर्ग के आदि में पुन: उसीसे प्रकट हो जाता है तथा उसी गुण - कर्म - समुदाय के अनुसार ही परमेश्वर सम्पूर्ण भूत - प्राणियों को संसार में रचते हैं | भगवान [ श्लोक ९ / ७ ] ने कहा है , ' हे अर्जुन ! कल्प के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात प्रकृति में लय होते हैं और कल्प के आदि में उनको मैं [ स्वयम ] फिर रचता हूँ |
प्रकृति के दो भेद हैं - एक विद्या और दूसरी अविद्या | विद्या के द्वारा भगवान संसार की रचना करते हैं और अविद्या के द्वारा जीव मोहित हो रहे हैं | जब जीव रज और तम को लांघकर केवल सत में स्थित हो जाता है , तब उसके अंत:करण में विद्या अर्थात ज्ञान की उत्पत्ति होती है | फिर उस ज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश होने पर वह ज्ञान भी स्वयम शांत हो जाता है | उस समय यह जीव मुक्त होकर परमात्मा के स्वरूप को अभिन्नरूप से प्राप्त हो जाता है | इसीको अभेद मुक्ति कहते हैं |
|| इति ||
सुख - दुःख अंत:करण के धर्म नहीं बल्कि विकार हैं और साधन से कम -ज्यादा हो सकते हैं तथा इनका नाश भी हो सकता है | मन बुद्धि , चित्त , अहंकार आदि जड होने के कारण कर्त्ता -भोक्ता नहीं हो सकते | ये माया के विकार हैं और अंत:करण इनके रहने का आधार स्थल है | अतैव माया के संबंध वाला पुरुष ही भोक्ता है | जब यह जीव स्थूल शरीर में आता है और जाग्रत - अवस्था में रहता है , उस समय इसका तीनों शरीर [ २४ तत्त्वों वाला ] और पाँचों कोषों से संबंध रहता है | जब प्रलय या स्वप्नावस्था को प्राप्त होता है , तब इसका प्रकृति सहित १७ तत्त्वों के सूक्ष्म शरीर से संबंध रहता है | जब यह ब्रह्माजी के शांत होने पर महाप्रलय में या सुषुप्ति - अवस्था में रहता है , तब इसका केवल प्रकृति के साथ संबंध रहता है | इसीको कारण - शरीर कहते हैं जो मूल प्रकृति का एक अंश है | सर्ग के अंत में गुण और कर्मों के संस्कारों का समुदाय कारणरूपा प्रकृति में लय हो जाता है और सर्ग के आदि में पुन: उसीसे प्रकट हो जाता है तथा उसी गुण - कर्म - समुदाय के अनुसार ही परमेश्वर सम्पूर्ण भूत - प्राणियों को संसार में रचते हैं | भगवान [ श्लोक ९ / ७ ] ने कहा है , ' हे अर्जुन ! कल्प के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात प्रकृति में लय होते हैं और कल्प के आदि में उनको मैं [ स्वयम ] फिर रचता हूँ |
प्रकृति के दो भेद हैं - एक विद्या और दूसरी अविद्या | विद्या के द्वारा भगवान संसार की रचना करते हैं और अविद्या के द्वारा जीव मोहित हो रहे हैं | जब जीव रज और तम को लांघकर केवल सत में स्थित हो जाता है , तब उसके अंत:करण में विद्या अर्थात ज्ञान की उत्पत्ति होती है | फिर उस ज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश होने पर वह ज्ञान भी स्वयम शांत हो जाता है | उस समय यह जीव मुक्त होकर परमात्मा के स्वरूप को अभिन्नरूप से प्राप्त हो जाता है | इसीको अभेद मुक्ति कहते हैं |
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