|| कार्य - कारण विवेचन ||
संसार में दो ही पदार्थ हैं - जड और चेतन | पुरुष चेतन है , प्रकृति जड है | पुरुष द्रष्टा है , प्रकृति दृश्य है | पुरुष निर्विकार है , प्रकृति विकारशीला है | इनमें देखने वाला द्रष्टा है और दूसरा जगत रूप में दीखनेवाल...ा दृश्य है | गीता [ श्लोक १३ / २० ] में ' कार्य और कारण के उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु कही गई है |' पांच भूत [ आकाश , वायु , अग्नि , जल और पृथ्वी ] तथा पांच विषय [ शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गंध ] इन दस का नाम ' कार्य ' है | पांच ज्ञानेन्द्रियाँ [ कान , नाक , आँख , जीभ और त्वचा ] ; पांच कर्मेन्द्रियाँ [ वाणी ,हाथ , पाँव , उपस्थ और गुदा ] तथा मन , बुद्धि , और अहंकार - इन तेरह का नाम करण है | प्रकृति इन सबका कारण है | अत: प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण यह सारा जगत प्रकृति का ही स्वरूप है | प्रकृति पुरुष का अंश नहीं है , वह उसकी शक्ति है | शक्ति भी शक्तिमान से कभी अलग नहीं हो सकती |
जब महाप्रलय होता है , उस समय सारा दृश्य - जगत प्रकृति में समा जाता है | उस समय केवल प्रकृति ही रहती है | जो उसका अव्यक्तरूप है | व्यक्तरूप का उत्पत्तिक्रम इस प्रकार है - मूल प्रकृति से समष्टि - बुद्धि उत्पन्न हुई | समष्टि बुद्धि से समष्टि - अहंकार और समष्टि अहंकार से समष्टि मन की उत्पत्ति होती है | उसी अहंकार से पांच विषय [ शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गंध ] की उत्पत्ति हुई | वास्तव में मन , बुद्धि , अहंकार - ये तीनों एक ही अंत:करण की विभिन्न अवस्था के तीन नाम हैं | इन पाँचों सूक्ष्मभूतों से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ , पांच कर्मेन्द्रियाँ और पांच महाभूतों की उत्पत्ति होती है | यही दृश्य - जगत है | इसका कारण प्रकृति है | यह अनिर्वचनीय है , जो तो कारण ही है , किन्तु पुरुष - ईश्वर महाकारण है | उसीसे यह संसार धारण किया गया है |
वस्तुत: यह पुरुष सृष्टि का उपादान और निमित्त दोनों ही कारण है | भगवान ने गीता [ श्लोक ४ / १३ ] में कहा है की ' ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य आदि चार वर्णों का समूह गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है |' यहाँ भगवान ने अपने को निमित्त - कारण बतलाया है ; किन्तु गीता [ श्लोक ९ / १० ] में उन्होंने प्रकृति को निमित्त - कारण बताया है | विचार करने पर यही सिद्ध होता है की ज्ञान और भक्ति दोनों ही सिद्धांतों से उपादान कारण भी ईश्वर ही है | परन्तु गीता [ श्लोक ४ / १३ ] में भगवान कहते हैं की ' उस चातुर्वर्ण्य के रचयिता होते हुए भी मुझ अविनाशी को तू अकर्त्ता ही समझ |' गीता [ श्लोक १३ /२२ ] में ' इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है |' इस चराचर जगत के सहित जो परमात्मा का स्वरूप है , वह सगुण है ; इससे अतीत जहां चराचर संसार नहीं है , जो केवल है , वह गुणातीत है | जैसे पृथ्वी के दो भेद हैं - गंध निराकार है और पुष्प साकार है ; अग्नि अप्रकट रूप में निराकार और प्रकट रूप में साकार है ; जल परमाणु रूप में निराकार तथा बादल , बूँद , और ओले के रूप में साकार है , वैसे ही सर्वव्यापी सगुण परमात्मा निराकार रूप में रहते हुए ही , साकार रूप से भी प्रकट होते हैं | इसी बात को भगवान ने गीता [ श्लोक ७ / ३० ] में कहा है | इसीका नाम समग्र ब्रह्म है , यही पुरुषोत्तम है |
जीवात्मा उपासक है और परमात्मा उपास्य है | सभी सिद्धांतों के अनुसार आत्मतत्त्व का साक्षात्कार होने के उपरान्त ' केवल्य ' अवस्था हो जाती है | यानी फिर कार्य सहित इस प्रकृति के साथ कुछ भी संबंध नहीं रहता | ज्ञान और कर्मयोग कहते हैं की आत्मज्ञान के बाद प्रकृति है तो सही , पर जिसको आत्मा का साक्षात्कार हो गया है , उसका प्रकृति से कोई संबंध नहीं रहता ( उसके लिए प्रकृति सांत ( स-अंत ) हो जाती है ) |
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संसार में दो ही पदार्थ हैं - जड और चेतन | पुरुष चेतन है , प्रकृति जड है | पुरुष द्रष्टा है , प्रकृति दृश्य है | पुरुष निर्विकार है , प्रकृति विकारशीला है | इनमें देखने वाला द्रष्टा है और दूसरा जगत रूप में दीखनेवाल...ा दृश्य है | गीता [ श्लोक १३ / २० ] में ' कार्य और कारण के उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु कही गई है |' पांच भूत [ आकाश , वायु , अग्नि , जल और पृथ्वी ] तथा पांच विषय [ शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गंध ] इन दस का नाम ' कार्य ' है | पांच ज्ञानेन्द्रियाँ [ कान , नाक , आँख , जीभ और त्वचा ] ; पांच कर्मेन्द्रियाँ [ वाणी ,हाथ , पाँव , उपस्थ और गुदा ] तथा मन , बुद्धि , और अहंकार - इन तेरह का नाम करण है | प्रकृति इन सबका कारण है | अत: प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण यह सारा जगत प्रकृति का ही स्वरूप है | प्रकृति पुरुष का अंश नहीं है , वह उसकी शक्ति है | शक्ति भी शक्तिमान से कभी अलग नहीं हो सकती |
जब महाप्रलय होता है , उस समय सारा दृश्य - जगत प्रकृति में समा जाता है | उस समय केवल प्रकृति ही रहती है | जो उसका अव्यक्तरूप है | व्यक्तरूप का उत्पत्तिक्रम इस प्रकार है - मूल प्रकृति से समष्टि - बुद्धि उत्पन्न हुई | समष्टि बुद्धि से समष्टि - अहंकार और समष्टि अहंकार से समष्टि मन की उत्पत्ति होती है | उसी अहंकार से पांच विषय [ शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गंध ] की उत्पत्ति हुई | वास्तव में मन , बुद्धि , अहंकार - ये तीनों एक ही अंत:करण की विभिन्न अवस्था के तीन नाम हैं | इन पाँचों सूक्ष्मभूतों से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ , पांच कर्मेन्द्रियाँ और पांच महाभूतों की उत्पत्ति होती है | यही दृश्य - जगत है | इसका कारण प्रकृति है | यह अनिर्वचनीय है , जो तो कारण ही है , किन्तु पुरुष - ईश्वर महाकारण है | उसीसे यह संसार धारण किया गया है |
वस्तुत: यह पुरुष सृष्टि का उपादान और निमित्त दोनों ही कारण है | भगवान ने गीता [ श्लोक ४ / १३ ] में कहा है की ' ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य आदि चार वर्णों का समूह गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है |' यहाँ भगवान ने अपने को निमित्त - कारण बतलाया है ; किन्तु गीता [ श्लोक ९ / १० ] में उन्होंने प्रकृति को निमित्त - कारण बताया है | विचार करने पर यही सिद्ध होता है की ज्ञान और भक्ति दोनों ही सिद्धांतों से उपादान कारण भी ईश्वर ही है | परन्तु गीता [ श्लोक ४ / १३ ] में भगवान कहते हैं की ' उस चातुर्वर्ण्य के रचयिता होते हुए भी मुझ अविनाशी को तू अकर्त्ता ही समझ |' गीता [ श्लोक १३ /२२ ] में ' इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है |' इस चराचर जगत के सहित जो परमात्मा का स्वरूप है , वह सगुण है ; इससे अतीत जहां चराचर संसार नहीं है , जो केवल है , वह गुणातीत है | जैसे पृथ्वी के दो भेद हैं - गंध निराकार है और पुष्प साकार है ; अग्नि अप्रकट रूप में निराकार और प्रकट रूप में साकार है ; जल परमाणु रूप में निराकार तथा बादल , बूँद , और ओले के रूप में साकार है , वैसे ही सर्वव्यापी सगुण परमात्मा निराकार रूप में रहते हुए ही , साकार रूप से भी प्रकट होते हैं | इसी बात को भगवान ने गीता [ श्लोक ७ / ३० ] में कहा है | इसीका नाम समग्र ब्रह्म है , यही पुरुषोत्तम है |
जीवात्मा उपासक है और परमात्मा उपास्य है | सभी सिद्धांतों के अनुसार आत्मतत्त्व का साक्षात्कार होने के उपरान्त ' केवल्य ' अवस्था हो जाती है | यानी फिर कार्य सहित इस प्रकृति के साथ कुछ भी संबंध नहीं रहता | ज्ञान और कर्मयोग कहते हैं की आत्मज्ञान के बाद प्रकृति है तो सही , पर जिसको आत्मा का साक्षात्कार हो गया है , उसका प्रकृति से कोई संबंध नहीं रहता ( उसके लिए प्रकृति सांत ( स-अंत ) हो जाती है ) |
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