Saturday, December 1, 2012

गीता में चरित्र निर्माण

|| गीता में चरित्र निर्माण ||
जो भक्ति नहीं करते , उनको भगवान दुष्कृति बताते हैं [ श्लोक ७ / १५ ; ७ / १६ ] और जो भक्ति करते हैं , उनको सुकृति बताते हैं | तात्पर्य यह है की परमात्मा की तरफ चलनेवाले सुकृति और संसार की तरफ चलनेवाले दुष्कृति ह...
ैं | आगे बताया की जिनके कर्म पवित्र हैं , जिनका चरित्र अच्छा है , वे दृढव्रत होकर भगवान का भजन करते हैं [ श्लोक ७ / २८ ] | भगवान की ओर चलने में स्मृति की बात मुख्य है | इसलिए भगवान कहते हैं कि तू सब समय में मेरा स्मरण कर - सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर [ श्लोक ८ / ७ ] | फिर भगवान ने विशेष बात बताई की जो निरंतर मेरा स्मरण करता है , उसके लिए मैं सुलभ हूँ [ श्लोक ८ / १४ ; ९ / १३ ; १८ / ५७ - ५८ ] |
भगवान का स्मरण करना देवीसम्पत्ति का , सत्चरित्रता का वास्तविक मूल है | स्मरण करने का तात्पर्य है - भगवान के साथ अपना जो वास्तविक संबंध है , उसको स्मरण करना कि मेरा तो केवल भगवान के साथ ही संबंध है , संसार के साथ नहीं | इस प्रकार परमात्मा के साथ नित्य संबंध को याद रखना ही स्मृति है | वेद , यज्ञ , तप , दान , तीर्थ , व्रत आदि से जो लाभ होता है , उससे अधिक लाभ भगवान का उद्देश्य रखकर भगवान की ओर चलने वाले को होता है [ श्लोक ८ / २८ ] | इसलिए भगवान की तरफ चलने को सब विद्याओं का राजा , सब गोपनीयों का राजा , अति पवित्र , अति उत्तम , प्रत्यक्ष फलवाला , धर्मयुक्त , करने में बड़ा सुगम और अविनाशी बताया गया है [ ९ / २ ] |
जैसे बालक माता की गोद में रहता है तो उसका स्वाभाविक ही पालन पोषण एवं वर्धन हो जाता है , ऐसे ही एक प्रभू का आश्रय ले लिया जाय तो सब के सब सद्गुण - सदाचार बिना जाने ही आ जाएंगे | अपने -आप ही चरित्र - निर्माण हो जायेगा | इस तरह पूरी गीता में एक ही बात है - परमात्मा की तरफ चलना अर्थात परमात्मा के सम्मुख होना | परमात्मा की ओर चलने का उद्देश्य ही चरित्र - निर्माण में हेतु है और संसार की ओर चलने का उद्देश्य ही चरित्र गिरने में हेतु है | सांसारिक भोग और संग्रह की इच्छा से ही सब दुर्गुण - दुराचार आते हैं | सबसे अधिक पतन करने वाली वस्तु है - पैसे का महत्त्व और आश्रय | इससे मनुष्य का चरित्र गिर जाता है | चरित्र गिरने से उसकी मनुष्यों में निंदा होती है , अपमान होता है | चरित्रहीन मनुष्य पशुओं तथा नारकीय जीवों से भी नीचा है ; क्योंकि पशु और नारकीय जीव तो पहले किये हुए पाप - कर्मों का फल भोगकर मनुष्यता की तरफ आ रहे हैं , पर चरित्रहीन मनुष्य पापों में लगकर पशुता तथा नरकों की तरफ जा रहा है | ऐसे मनुष्य का संग भी पतन करने वाला है | अत: अपना चरित्र सुधारने के लिए भगवान के सम्मुख हो जायं कि मैं भगवान का हूँ , भगवान मेरे हैं | मैं संसार का नहीं हूँ , संसार मेरा नहीं है |
मनुष्य से भूल यह होती है की जो अपने नहीं है , उन सांसारिक वस्तुओं को तो अपना मान लेता है और जो वास्तव में अपने हैं , उन भगवान को अपना नहीं मानता | संसार की वस्तुओं को संसार की सेवा में लगा देना है और अपने आप को भगवान के अर्पित कर देना है | न तो संसार से कुछ लेना है और न भगवान से ही कुछ लेना है | अगर लेना ही है तो केवल भगवान को ही लेना है | भगवान में अपनापन होने से सब आचरण और भाव स्वत: शुद्ध हो जायेंगे | फिर मनुष्य में सचरित्रता अपने आप आ जायेगी | इस चरित्र निर्माण में सब - के -सब स्वतंत्र हैं , समर्थ हैं , योग्य हैं और अधिकारी हैं |
|| इति ||

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